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मजदूरी और मजबूरी का गुलाम बनता बचपन

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घर का बोझ उठाने वाले बच्चे की तकदीर न पूछ
बचपन घर से बाहर निकला और खिलौना टूट गया- मुनव्वर राणा

अंकल, अंकल प्लीज अंकल बूट पॉलिश करालो ना। आपका जूता एकदम चमका दूंगा। अरे अंकल रूको ना। इस छोटे से बच्चे की आवाज ने मुझे अपनी ओर ध्यान देने पर मजबूर किया। जिन साहब को वो मासूम अंकल कह कर इज्जत दे रहा था, वह महानुभव उसके दुत्कार कर चल दिए। ये नजारा देखकर मैनें उस मासूम से सवाल किया। क्या नाम है बेटा आपका? जॉनी । अच्छा जॉनी कुछ खाओगे। आइसक्रीम के ठेले की और उसकी तरसी नजर ने मुझे समझा दिया की वो क्या चाहता हैं। एक आइसक्रीम के साथ मैने उस पर सवालों की बौछार करदी। जॉनी तुम्हारे घर-घर में कौन-कौन है? मैं हूं, मेरी मां हैं, और पापा और गुड़िया। अच्छा तो तुम्हारे पापा क्या काम करते है? दारू पीते है। और मां? वो मेरी तरह काम करती हैं। अच्छा तो तुम पढ़ते क्यों नहीं हों? सरकारी स्कूल में जाओ वहां खाना भी देते है, किताबें भी देते हैं। तो तुम वहां पढ़ सकते हो। मेरी इन सलाहों को सुनकर उसने जो मुझसे सवाल किया, उसने मेरे मुंह पर चुप्पी लगा दी। दीदी स्कूल में पैसा तो नहीं मिलता ना। खाना कहां से खायेगा। नहीं कमाएगा तो। इतना कहकर वो अपने काम पर लग गया। काफी देर तक मैं उसे देखती रही। और सोचती रही इस सवाल का क्या जवाब होना चाहिए? कहीं पढ़ा था ”अक्सर ये छोटू अपने घर के बड़े होते है“ आज देख भी लिया। इस नन्हीं उम्र में बूट-पॉलिश का थैला उठाये वो बच्चा लोगों की दुत्कार के साथ आगे बढ़ रहा था। मेरा मन सवाल कर रहा था – देश का भविष्य किताबों की जगह, जिदंगी का बोझ उठाये है।

क्यों मजबूर है काम करने को बचपन
पढनें-लिखने की उम्र में बच्चे मजदूरी करने को मजबूर है। इन बच्चों की मां-बाप ही इनको मजबूर करते हैं। किसी बच्चें का बाप शराब पीता है तो उसे घर चलाने के लिए अपनी मां के साथ काम करना पड़ता हैं। ऐसी ही कहानी हैं पिंकी की जो अपनी मां के साथ घरों मे बर्तन धोने का काम करती है। पिंकी से पूछने पर पता चला कि वो छह बहनें है, जो बड़ी है वो भी ये काम करती है, हमारे पापा कुछ काम नहीं करते, बस शराब पीते है, इसलिए काम करना पड़ता है। कई बार ये बच्चें काम के साथ-साथ स्कूल भी जाते है। लेकिन उनका ध्यान पढ़ाई में कम पैसा कमाने में ज्यादा होता है। कई बार बच्चों को अगवाह कर के उनसे बाल-मजदूरी कराई जाती है। भारत में हर साल 90 हजार बच्चों की गुमशुदगी कि रिपोर्ट पुलिस-थानों में दर्ज होती है। इसमें से 30 हजार से ज्यादा का पता नहीं लग पाता। यह आंकड़ा भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का है। भारत में सबसे ज्यादा बच्चे महाराष्ट्र से लापता होते है। इनमें से आधे से ज्यादा बच्चों को देह-व्यापार में धकेल दिया जाता है। कितने बच्चों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। कई बच्चे उनके मां-बाप द्वारा ही बंधुआ-मजदूरी के लिए बेचें जाते है। कई बार मां-बाप ही बच्चों के दुश्मन बन जाते है। कई मां-बाप ये मानते है कि बचपन में काम करने से बच्चों में कमाने के गुण आते है। ऐसा करके वो अपने बच्चें को शिक्षा से दूर कर देते है। ये विडबंना है कि देश का भविष्य मजबूर है बाल-मजदूरी करने को। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा 2 जून को बाल श्रम (निषेध और नियमन) नियम, 2017 को अधिसूचित किया गया। बाल श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम 2016 में कुछ कमियां होने के कारण इस अधिनियम में संशोधन किया गया है। नए कानून को प्रभावशाली बनाने की कोशिश की गई हैं। बाल मजदूरी समाज पर कलंक है। जब तक ये कलंक समाज से मिट नहीं जाता, देश की तरक्की तब तक नहीं हो सकती। इतने कठोर कानून के बावजूद भी बाल-मजदूरी ज्यों की त्यों बरकरार हैं। अब इसके लिए जिम्मेदार कोई भी हो पर इसका खामियाजा गरीब और मासूम बच्चों को अपना बचपन खोकर चुकाना पड़ रहा है।

भीख मांगता-बचपन
ट्रैफिक-सिग्नल तो कभी मॉल के बाहर कितने बच्चें भीख मांगते दिखाई देते है। किसी बच्चे को भीख मिलती है तो किसी को दुत्कार तो किसी को नसीहत। भिक्षावृति कानून के बनने के बाद भी बाल-भिक्षावृति में कोई कमीं नहीं दिखती। कभी ये बच्चे ट्रैफिक-सिग्नल पर गाड़ियों को साफ करके भीख मांगते है तो कभी मॉल के बाहर छोटी-मोटी चीजे बेचकर। हाथ में दूध पीते बच्चें को लेकर भीख मांगती औरतें भी आपने अक्सर देखी होगीं। ये नजारा देखकर तो हैरानी होती है कि एक छोटा सा मासूम जो अभी पैदा ही हुआ है, उसको भी भीख मांगने में शामिल कर लिया, वो बड़ा भी ये देखते हुए होता है और इसी काम में लग जाता है। कभी-कभी भिक्षावृति इन लोगों की मजबूरी नहीं बल्कि आदत सी लगती है। मैं कच्ची-बस्ती में बच्चों को पढ़ाया करती थी। उन बच्चों में शिक्षा के प्रति उत्साह था, वो चाहते थे पढ़ना। एक ही शर्त पर पढ़ाती थी कोई बच्चा भीख नहीं मांगेगा। क्योंकि उन बच्चों के माता-पिता मजदूरी, रोजगार करते थे। उन्होनें ये बस्ती बसा रखी थी। भीख मांगने जैसी कोई मजबूरी नहीं लगती थी। बच्चे रोज पढ़ने आते। एक बार बच्चों से सवाल किया कि स्कूल क्यों नहीं जाते? उनमें से एक बच्चा राहुल जो कि स्कूल जाता था, उसने बताया कि स्कूल तो है पर कभी अध्यापक नहीं आते तो कभी पढाई नहीं होती, बस राम-भरोसे स्कूल चलता है। सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि कानून और सुविधाएं तो सरकार की तरफ से मुहैया हो जाती है लेकिन उनको देखने वाला कोई नहीं की इन कानून और सुविधाओं का संचालन सही से हो भी रहा है या नहीं। बस एक खानापूर्ति सी ही। कुछ बच्चें सिग्नल पर रोज दिख जाते। आखिरकार उनके माता-पिता से पूछा कि क्यों ये बच्चे भीख मांगते है। जवाब सुनकर आपको भी हैरानी होगी- जवाब था, ये बच्चे इधर-उधर बदमाशी करते फिरते है तो भीख मांगकर लायेंगे तो दो पैसे घर में आऐगें। ये जबाव सुनकर लगा कि ये तो एक शोषण है जो इन बच्चों के मां-बाप से शुरू होकर समाज तक फैलता है। बच्चों का अपहरण करके इनसे भीख मंगवाने वाले कितने ऐसे गिरोह है जो बच्चों से इनका बचपन छीन रहे हैं।

एक अभिशाप- बाल वेश्यावृति
हमारा देष बाल वेश्यावृति के मामले में एशिया की सबसे बड़ी मंडी के रूप में उभर रहा है। अक्सर मां-बाप को उनकी लड़कियों को काम दिलाने का ख्वाब दिखाकर बेच दिया जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशलवर्क से जुड़े डॉ के. के. मुखोपाध्याय ने अपने एक शोध में पाया कि छोटी उम्र में ही वेश्यावृति के लिए बेची-खरीदी गई बच्चियों में से दो-तिहाई अनुसूचित, अनूसुचित जनजाति या बेहद पिछड़ी जातियों से आती है। केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में एक लाख से भी ज्यादा सेक्स-वर्कर है और उनमे पद्रंह प्रतिशत पंद्रह साल से कम उम्र की बच्चियां है। नाबालिग बच्चियों के खरीद-फरोख्त में अच्छा पैसा मिलता है। इसलिए ये कारोबार दिन दौगुनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा हैं।ये घिनौना अपराध कम होने के बजाय दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। अरब देशों में भारत की गरीब लड़कियों कों बकायदा निकाह कर बेचा जाता हैं। ताईवान, थाईलैंड जैसे देह-व्यापार के अडडों की लाइन भी भारत से जुड़ गई हैं। जहां बच्चियों को नवदुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है, वहीं दूसरी तरफ इन मासूम फूलों को कुचला भी जाता है।

खिलखिलाता रहें बचपन
”ये तो आशा की लहर हैं, ये तो उम्मीदों की सहर है, खुशियों कि नहर हैं, खो ना जाये ये…………..तारें जमीं पर“ प्रसून जोशी द्वारा लिखे गये ये गीत की पंक्तिया भी समझाती हैं, इन मासूमों से इनका बचपन ना छीना जाए। ये फूल खिलते रहे और इन्हीं फूलों की महक से हमारा देश, हमारा समाज महकता रहें। नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाष सत्यार्थी ने अपना सारा जीवन बच्चों के हक की लड़ाई लड़ने के लिए समर्पित कर दिया। कैलाष सत्यार्थी बचपन बचाओ आंदोलन चलाते हैं। उनके प्रयासों से अस्सी हजार बच्चों का जीवन सुधरा हैं। ऐसे ही प्रयास हर इंसान अपना कर्तव्य समझ कर करे तो ना जाने कितनो बच्चों का बचपन सुधर जाये। बच्चे जब भीख मांगते है तो उनको भीख देने की बजाया किताबें दे या फिर उनको भीख ना दें। जब उनको भीख नहीं मिलेगी तो उनके माता-पिता भीख के लिए मजबूर ना करें। जब कोई बच्चा कोई चीज आपको बेच रहा हो तो आप उसे दुत्कारें नहीं। कोशिश करें आपके आस-पास ऐसे कई मासूम है जिनको आप शिक्षित कर सकते है। अपने हाथों में ये छोटी-छोटी उंगलिया पकड़ लिजिए और इन नन्हें मासूमों को सहीं राह पर ले जाए। कैलाष सत्यार्थी कहते हैं ”मैं हजारों महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, और नेल्सन मंडेला  को आगे बढ़ते और हमें बुलाते हुए देखता हूं। लड़के और लड़कियां शामिल हो गए हैं। मैं शामिल हो गया हूं। हम आपको भी शामिल होने के लिए कहते हैं“। हमें अपनी आखें खुली रखनी है, सरकारी सेवाओं के भरोसे नहीं रहना हैं। बाल-मजदूरी, बाल-भिक्षावृति, बाल-वेश्यावृती से कलंक समाज से हटाने है। हर बच्चे में अपने बच्चे को देखे, आप अपने आप ही उसके विकास के लिए आगे बढ़ेगे। बच्चों को उनका हक मिलना चाहिए। हक पढ़ने का, मुस्कुराने का, खिलखिलाने का, आगे बढ़ने का। ये देश का भविष्य गलत हाथों में नहीं जाना चाहिए, अन्यथा हमारा पतन निश्चित हैं।

– नीतू शर्मा
डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य और व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं, तथा पञ्चदूत उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है। अगर आप भी अपने लेख वेबसाइट या मैग्जीन में प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो हमें magazine@panchdoot.com ईमेल करें।