महेश नवमी के उपलक्ष में सांड़ी वाकेधान का आयोजन किया

131
हनुमानगढ़। टाउन में अखिल भारतीय महेश्वरी महिला संगठन के तत्वधान में स्थानीय महेश्वरी महिला मण्डल, अग्रवाल समाज महिला मण्डल व महिला वैश्य समाज द्वारा महेश नवमी के उपलक्ष में सांड़ी वाकेधान का आयोजन किया गया । हनुमानगढ टाऊन महेश्वरी महिला मण्डल कि अध्यक्ष बिमला करवां व वैश्य,अग्रवाल महिला मंडल अध्यक्ष उमा गुप्ता ने बताया आज साड़ी वॉकेधान कार्यक्रम के तहत मण्डल कि महिलाओं द्वारा महेश्वरी धर्मशाला से जागरूक रैली निकाली, जो शहर के मुख्य मार्गो से होती हुई नई धान मंडी के श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर पर पहुची, जॅहा पर महिला संगोष्ठी का कार्यक्रम किया गया । जिसकी मु़ख्य अतिथि वी.एम. कन्या महाविद्यालय कि प्रचार्या डॉ. श्रीमती नीलम गौड़ थी । इस मौके पर साड़ी वाकेधान पर चर्चा हुई जिसमें आज के युग में महिलाओं को अपने रितिरिवाज के हिसाब से पहनावें के बारे में बताया और आज फैशन युग में पश्चमी देशो के पहनावे को लेकर देश कहा जा रहा है इस विषय पर डॉ नीलम गोड़ ने विस्तार से बताया । पहले कि महिलाऐं आज भी साड़ी को पहनती हे व बहुत ही सुन्दर व लाज में दिखती है ।
डॉ गोड़ ने कहा साड़ी है क्या ?, 6 मीटर के कपड़े को आखिर साड़ी ही क्यों कहा गया? दरअसल, जब जमाना मॉडर्न नहीं हुआ था, उस वक्त महिलाएं अपने शरीर के निचले हिस्से को एक कपड़े से ढंकते थे, जिसे धोती कहा जाता था. इसी धोती ने महिलाओं के मामले में साड़ी का रूप ले लिया. वैसे साड़ी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के सट्टिका शब्द से मानी जाती है. इसका मतलब कपड़े की पट्टी होता है. वैसे तो साड़ी को लेकर तमाम दावे हैं, लेकिन बात वेदों की करें तो वहां भी साड़ी का जिक्र मिलता है. जानकारों की मानें तो सबसे पहले यजुर्वेद में साड़ी का जिक्र किया गया है. इसके अलावा ऋग्वेद में भी यज्ञ आदि के वक्त अर्धांगिनी को साड़ी पहनाने का रिवाज बताया गया है. कहा जाता है कि इस रिचुअल के चलते साड़ी धीरे-धीरे भारतीय परंपरा में रच-बस गई.। दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं से उस वक्त के कल्चर का पता चलता है. कहा जाता है कि खुदाई के दौरान जब सिंधु घाटी सभ्यता और हड़प्पा संस्कृति की खोज हुई, उस वक्त आर्कियोलॉजिस्ट्स को एक मूर्ति भी मिली थी. इस मूर्ति पर साड़ी जैसा डिजाइन भी बना हुआ था. ऐसे में माना जाता है कि उस वक्त भी साड़ी चलन में थी.।
महाभारत में चीर हरण प्रसंग का जिक्र किया गया है. इस किस्से में दुर्याेधन द्वारा द्रौपदी के चीर हरण का प्रसंग है, जिसकी लंबाई श्रीकृष्ण बढ़ा देते हैं. जानकारों की मानें तो महाभारत काल के इसी चीर को साड़ी कहा गया.। अंग्रेजों के जमाने की पुरानी तस्वीरें हों या पुरानी फिल्में, दोनों ही मामलों में महिलाओं को साड़ी जैसे कपड़े में लिपटा हुआ देखा जा सकता है. प्राचीन भारत में उत्पन्न, साड़ियाँ सदियों से विकसित हुई हैं, न केवल एक परिधान बन गई हैं बल्कि परंपरा, अनुग्रह और पहचान का प्रतीक भी बन गई हैं। उन्होने कहा साडी पहनने वाली महिलाएं क्यों आकर्षण होती हैं, इसका कारण है उनकी सुंदरता और संस्कृति में। साडी, एक पारंपरिक वस्त्र, महिलाओं को सौष्ठव और शैली दोनों में निखारने का अवसर मिलता है। महिलाएं साडी में खुद को सहज महसूस कराती हैं और इसमें उनका स्वभाविक सौंदर्य प्रकट होता है। देश के अलग-अलग राज्यों में बोली, खान-पान और पहनावे में भिन्नता देखने को मिलती है. खास बात यह कि किसी के पहनावे से हम बता सकते हैं महिला किस राज्य से संबंधित है. लेकिन एक चीज जो कॉमन है, वो है साड़ी. साड़ी ऐसा पहनावा है जो देश के विभिन्न राज्य की महिलाएं पहनती हैं. ऐसे में भारत में साड़ी परंपरा को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं की भागीदारी के साथ साड़ी वॉकेधान का आयोजन अखिल भारतीय महेश्वरी महिला संगठन द्वारा किया जा रहा है. । इस मौके पर महेश्वरी व अग्रवाल महिला मण्डल द्वारा डॉ नीलम गोड़ को स्मृति चिन्ह देकर सम्मान किया गया । इस अवसर पर महिला मण्डल की सभी सदस्य उपस्थित थी ।

ताजा अपडेट्स के लिए आप पञ्चदूत मोबाइल ऐप डाउनलोड कर सकते हैं, ऐप को इंस्टॉल करने के लिए यहां क्लिक करें.. इसके अलावा आप हमें फेसबुकट्विटरइंस्ट्राग्राम और यूट्यूब चैनल पर फॉलो कर सकते हैं।