बदल गयी है राजनीति अब बदलना होगा अंदाज

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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने साल 1980 में भारतीय जनता पार्टी के पहले अधिवेशन में अपनी दमदार आवाज में कहा था कि, मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि एक दिन आएगा जब ‘अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा’। आज बीजेपी की वर्तमान स्थिति को देखते हुए ये ही लगता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने ये कारनामा कर दिखाया। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय के नतीजे भाजपा के लिए बड़ी जीत लेकर आए। भाजपा ने सबसे बड़ी जीत देश के तीसरे सबसे छोटे राज्य त्रिपुरा में दर्ज की। भाजपा गठबंधन ने वाम दलों का 25 साल पुराना किला ध्वस्त कर पहली बार दो-तिहाई बहुमत (43 सीटें) हासिल कर ली। 5 साल पहले 1.5% वोट हासिल करने वाली भाजपा इस बार 43% वोट के साथ 35 सीटें जीत ले गई। उसकी सहयोगी आईपीएफटी केवल 8 सीटें जीत पाई। उधर नगालैंड में भाजपा गठबंधन बहुमत से सिर्फ 3 सीट पीछे रहा। मेघालय में त्रिशुंक विधानसभा सामने आई। पूर्वोत्तर के चुनावी नतीजों ने देश की राजनीति में जहां भाजपा और उसकी दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा का दबदबा और बढ़ने और कायम रहने के आसार दिखाए हैं तो वहीं दूसरी ओर राजनीति से वामदलों के लगभग सफाया हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। आलोचकों की आशंका है कि आने वाले वक्त में वामपंथी विचारधारा सिमटकर ना रह जाए। यही कारण है कि प.बंगाल के बाद त्रिपुरा में वामपंथी दलों की करारी हार ने इस विचाराधारा के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए। खासकर उस समय जब माणिक सरकार की छवि देश के गिने-चुने ईमानदार नेताओं में होती हैं। पूर्वोतर राज्यों के नतीजों को आने वाले  कर्नाटक विधानसभा चुनावों के नतीजों से जुड़ते हुए देखा जा रहा है कि प्रभावित करेंगे या नहीं। ये बात तो आगामी चुनावों की हुई। अब सवाल है उस पार्टी का जिसको देश की प्राचीन पार्टी कहा जाता है। लगातार बीजेपी के सामने अपने घुटने टेकती कांग्रेस आखिरकार इतनी कमजोर कैसे हो गई। भाजपा ने गठबंधन सरकारों समेत 19 राज्यों में अपनी पहुंच बना ली है जबकि कांग्रेस केवल पांच में ही सिमट कर रह गई है। कांग्रेस अगर अपना कमाल कर्नाटक चुनावों में दिखाने में असफल रही तो साल 2019 के लोकसभा चुनावों में उसकी दावेदारी कमजोर हो जाएगी।

गांधी-नेहरू के प्रभाव वाली कांग्रेस इतनी कमजोर कैसे?
कांग्रेस पार्टी किसी पहचान की मोहताज नहीं है लेकिन साल 2014 से कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लगभग 132 बरस पुरानी कांग्रेस का किला बीजेपी के सामने ध्वस्त हो रहा है। ये समझना बेहद जरूरी हो चुका है कि गांधी और नेहरू विचारों से वोट बटोरने वाली कांग्रेस अब अपने मतदाताओं को रिझाने में असफल क्यों हो रही है। जानकार बताते हैं कि, कांग्रेस हमेशा से सांप्रदायिकता विरोधी छवि और धर्मनिरपेक्षता के लिए जानी जाती रही है। इसका पुख्ता सबूत हिंदू कोड बिल के तौर पर देखा जा सकता है। जब यह कानून 50 के दशक में उभरा था तब कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने के आरोप लगे थे परन्तु लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई थी। कांग्रेस की वर्तमान स्थिति को देखते हुए वीर सावरकर का कहा याद आ रहा है, जब उन्होंने कहा था जिस दिन हिंदू एकजुट हो गया, उस दिन नेता कुर्ते के उपर जनेऊ पहने घूमेंगेयही वजह कि सत्ता से दूर रही कांग्रेस ने अपनी कैम्पेन में अब मंदिरों को भी शामिल कर लिया है। पिछले साल हुए यूपी चुनावों में एक बड़ा बदलवा देखा गया धर्मनिरपेक्षता की प्रहरी कांग्रेस अल्पसंख्यकों मतदाताओं को भी खुश करने में नाकाम रही ये ही वजह है कि मुस्लिम मतादाओं का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा है।

कांग्रेस को तोड़ने होगी परिवारवादी सोच-
क्या आप जानते हैं, देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाली पार्टी है कांग्रेस। अब तक के कुल 14 प्रधानमंत्रियों में 9 कांग्रेस से रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक कांग्रेस ने बहुत उतार-चढ़ाव भी देखें है लेकिन जो बदलाव पार्टी पिछले साल 2014 से देखें है उसके बारें सपने में भी कभी नहीं सोचा होगा कि उसके अस्तित्व के साथ इस कदर खिलवाड़ किया जाएगा। राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि आज देश में युवाओं की आबादी ज्यादा है वह नए सोच और नई नीतियों-बदलावों को महत्व देती है। जिस तरह से बीजेपी ने अपना टारगेट ऑडियंस तैयार किया ऐसा काम कांग्रेस नहीं कर पाई। कांग्रेस संरचनात्मक और नेतृत्व के तौर पर इन दिनों कमजोर अवस्था में है और इन दोनों मामलों में बीजेपी काफी आगे है। पार्टी पर आज भी परिवारवाद की रणनीति हावी है। जिसका खामियाजा जनता समय-समय पर उसे देते भी आई है। फिर चाहें 1975 में आपातकाल का दौरा हो,  राजीव गांधी या इंदिरा गांधी की मौत हो। जनता ने चुनाव हराया भी और कांग्रेस की वापसी भी करवाई लेकिन अब कांग्रेस को 2019 लोकसभा में वापसी करनी है तो परिवारवादी सोच तोड़ने की जरूरत है।

कांग्रेस की कमजोर कड़ियां-
कांग्रेस के शासन काल में कई ऐसी घटनाएं घटी जिसके दाग अभी तक मिट नहीं सके हालांकि ऐसा हाल हर राजनीतिक दलों का है लेकिन कांग्रेस और बीजेपी दो मजबूत पार्टियों पर सबकी निगाह रहती है। सत्ता में रहते हुए इमरजेंसी, बोफोर्स, अनियंत्रित भष्ट्राचार आदि ऐसे दाग है जो कांग्रेस से कभी धुल नहीं सकते। कांग्रेस का पहला दाग, राजीव गांधी की हत्या के बाद नेहरू-गांधी का आवरण देश की सियासत से हटा। जब पी.वी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया। उनके नेतृत्व में सरकार बेहतर चल ही रही थी कि उनपर सांसद खरीदने के आरोप लग गए और इस बात का कांग्रेस को नुकसान हुआ। दूसरा दाग- हवाला मामले ने भी कांग्रेस की छवि को प्रभावित करने का काम किया। 6 दिसंबर 1992 की बाबरी मस्जिद के ध्वंस के दंश से भी कांग्रेस घिरी जिसके चलते उन दिनों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश समेत भाजपा की बहुमत से भरी चार राज्यों की सरकारों को उखाड़ फेंका जो लोकतंत्र के हिसाब से अखरने वाला था। दौर बदला सत्ता बदली, भाजपा को भी केंद्र में 13 दिन, 13 महीने और गठबंधन के साथ पांच साल को सरकार सत्ता में आने का मौका मिला। इस दौरान तक कांग्रेस अपने बुरे दौर से गुजरी लेकिन उसको क्या मालूम था साल 2014 गुजरात का ब्रांड मोदी इतना बड़ा सत्ता परिवर्तन कर देगा कि भारत के नक्शे में भगवा रंग छा जाएगा। अगर जल्द रणनीतियों में बदलाव नहीं किए गए तो बचे हुए राज्यों से भी कांग्रेस का सिमटने का सिलसिला जारी रहेगा। जाहिर है कांग्रेस को उभरने के लिए नेतृत्व व संरचना ही नहीं धारा और विचारधारा में भी बड़ा बदलाव करना होगा।

वामपंथ और आरएसएस का उदय एक साथ-
मुद्दा पार्टियों के अस्तित्व का है, तो यह जानना दिलचस्प होगा कि आज भारतीय राजनीति में दो विचारधारों का अस्तित्व उदय पर है तो एक अस्त में। ऐसा इसलिए क्योंकि साल 1925 में में आरएसएस की स्थापना हुई और उसके कुछ महीनों बाद वामपंथी पार्टी सीपीआई ( भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) की स्थापना हुई। जहां आरएसएस हिंदुत्व की राजनीति में विश्वास रखती थी वहीं कम्युनिस्ट विचारधारा राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाने की थी। हिंसात्मक रवैया हर पार्टी ने अपनाया लेकिन कभी माना नहीं। इस तरह आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टियों में कई बुनियादी अंतर रहे हैं। यह अंतर इनके राजनीतिक सफर में भी रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियों को जहां जल्द ही राजनीतिक सफलता मिलने लग गई थी। वहीं शुरुआती सफलता के लिए भी आरएसएस को सालों संघर्ष करना पड़ा था लेकिन पहले पश्चिम बंगाल और अब त्रिपुरा से बेदखल होने के बाद ऐसा लग रहा है कि वामदल देश की संसदीय राजनीति के इतिहास के सबसे बुरे दौर में प्रवेश कर चुका है और पिछले चार सालों से लगातार सफलता का स्वाद चख रही भाजपा और आरएसएस अपने इतिहास के सबसे सुनहरे वक्त में दाखिल हो चुके हैं। ऐसा इसलिए भी क्योंकि जनता के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं।

भाजपा का  ‘कांग्रेस मुक्त नारा कहीं विपक्ष मुक्त तो करना नहीं-
त्रिपुरा की जीत के बाद से ही सोशल मीडिया पर लिखा गया है लोकतंत्र वाले देश में जनता के पास विकल्प नहीं..उसके पास वोट देने के नाम पर..भाजपा है..बीजेपी है..या फिर भारतीय जनता पार्टी। ये सही भी है कि वर्तमान स्थिति के अनुसार, जनता के पास विकल्प की कमी है। जहां क्षेत्रीय पार्टीयों का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है वहीं कांग्रेस पार्टी के भी हालात ठीक नहीं है। कांग्रेस के साथ-साथ अन्य दलों को भी समय के साथ बदलने की नई सोच विकसित करनी होगी। जानकारों के अनुसार त्रिपुरा से वाम मोर्चे को हटाने के बाद मुश्किल इलाकों में भाजपा के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के बीच पार्टी को लेकर विश्वास और बढ़ सकता है। ऐसे में आने वाले वक्त में हो सकता है पार्टी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अपना लक्ष्य ‘विपक्ष मुक्त भारत’ के रूप में विस्तृत कर ले।

भाजपा के लिए एकजुट होती क्षेत्रीय पार्टी-
2019 के लोकसभा चुनावों के लिए कई छोटी राजनीति पार्टियां एक हो रही है। इसका सबसे बड़ा मामला मायावती और अखिलेश सरकार का आपसी गंठबंधन है। ऐसा नहीं है ऐसे बेमेल गंठबंधन पहले नहीं हुए इससे पहले मायावती-मुलायम सिंह का गठबंधन। मायावती और बीजेपी की साठ गांठ या कर्नाटक में बीजेपी और जेडीएस का तालमेल। पीएम मोदी ने कहा था घर का उत्तर-पूर्वी कोना सबसे ज्यादा शुभ माना जाता है और आज देश के इसी कोने में बीजेपी का राज है। लगातार मोदी दल की होती जीत क्षेत्रीय पार्टियों के लिए चुनौति बन चुकी है। ऐसे में कई सांठ-गांठ की खबरें आ रही हैं। बताते चले, शिव सेना, डीएमके, एआईएडीएमके, तेलुगु देशम और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी कितनी ही पार्टियां हैं, जो विशुद्ध रूप से क्षेत्रीय राजनीति को ध्यान में रख कर तैयार की गईं। हर बार उनकी सरकार भले ही न बने लेकिन अपने अपने राज्यों में इनकी जड़ें काफी मजबूत है।

मुद्दों का गलत चयन –
आम तौर पर ये देखा जाता है कि कोई भी चुनाव मुद्दों को लेकर लड़ा जाता है लेकिन आज की राजनीति ने चुनावी माहौल को ऐसा रंग दे दिया है कि आम आदमी के मुद्दे तो कही दब कर रह जाते है जिन्होंने उसको आहात किया था और ऐसे मुद्दे चुनावी रंगमंच पर नज़र आते है जो आम आदमी को सिर्फ कठपुतली बनाकर रख देता हैं ।आपको याद हो तो जेपी मूवमेंट में किस तरह से एक मुद्दे ने काया पलट कर दी थी उसी तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ ने केजरीवाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया। अब तक अगर आप देखेंगे तो विपक्ष द्वारा जो मुद्दे उठाये जाते है उनका कोई खास वजूद नजर नहीं आता । लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष का होना राष्ट्र के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है परन्तु मुद्दों के गलत चयन से अब विपक्ष मुक्त सरकार बनती जा रही हैं जो सोचने का विषय हैं । आम तौर पर विपक्ष को ऐसे मुद्दों का चयन करना चाहिए जिस से जनता सच में आहत है, ऐसा नही कि एक बहुत बड़ा तबका जिस के पक्ष में खड़ा है और उसको उस मुद्दे में राष्ट्र का विकास नजर आ रहा है और आप उसका विरोध सिर्फ वोटों की राजनीति के लिए कर रहे है तो देश ‘विपक्ष मुक्त’ देश बनाने की सोच लेगा ।

सोच समझ कर हो गठबंधन
अगर आप इतिहास पर नजर डालेंगे तो आपको समझ में आ जायेगा कि गठबंधन क्यों जरुरी है, भले ही पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने अकेले के दम पर सरकार बनाने की स्थिति में थी पर ये बहुत समय बाद ऐसा देखने में आया कि एक पार्टी को बहुमत मिल जाये। भारत कुछ राज्यों को छोड़ दे तो बहुत से राज्यों में क्षेत्रीय दलों का इतना दबदबा है कि राष्ट्रीय दलों का नाम फींका नजर आता हैं। आमतौर पर सत्ता में आने या बने रहने के लिए राजनैतिक पार्टियां इन क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करती हैं और दो विचारधारा वाले मतदाताओं को अपनी तरफ ले आती है परन्तु गुजरें दिनों की बात अलग थी अब गठबंधन अगर आप सिर्फ किसी पार्टी को रोकने के लिए करते है तो यह नुकसानदेह हो सकता है क्योंकि मतदाता की समझ में भी आता है कि हमेशा से एक दूसरे की दुश्मन रही विचारधारा साथ क्यों आई है ? आज विपरीत विचारधार एक कैसे हो गयी ? साथ ही टिकट वितरण के दौरान गठबंधन में रही पार्टी के स्थानीय नेताओं के बगावत की संभावना भी खेल बिगाड़ सकती हैं।

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य और व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं, तथा पञ्चदूत उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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