50 साल नक्सलवाद: ये दो शख्स थे देश के पहले ‘नक्सलवादी’, बहुत गहरी हैं ये जड़ें

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आजादी के बाद देखा गया सपना जब टूटने लगा तो देश की जनसंख्या का एक तबका बागी होने लगा। उसी बागी तबके को नक्सलवाद नाम दिया गया। बताते चले आज के दिन यानी 25 मई को इस आंदोलन को 50 साल पूरे हो गए। देश के कई राज्‍य आज भी लंबे समय से इसे झेल रहे हैं। नक्‍सलवादी हिंसा में सैंकड़ो बेगुनाहों की मौत हो चुकी है जबकि देश का आदिवासी समुदाय भी अप्रत्‍यक्ष और प्रत्‍यक्ष रूप से इस हिंसा का शिकार है।

आजादी के बाद विकास की लहर एक तरफा चली और संसाधनों के अभाव और लालफीता शाही में फंसी व्‍यवस्‍था में बड़े पैमाने पर लोगों का शोषण, अधिकारों का हनन हुआ, जिसका नतीजा नक्सलवाद के रूप में सामने आया।

कुछ यूं शुरू हुई पार्टी?

दरअसल, आज देश जिस नक्‍सलवाद से जूझ रहा है उसकी शुरुआत प. बंगाल के छोटे से गांव नक्‍सलबाड़ी से हुई। भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के चारू मुजुमदार और कानू सान्‍याल ने 1967 में एक सशस्‍त्र आंदोलन को नक्‍सलबाड़ी से शुरू किया इसलिए इसका नाम नक्‍सलवाद हो गया।

बहरहाल, उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां और पूरी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था जिम्मेदार है। सिलिगुड़ी में पैदा हुए चारू मजूमदार आंध्र प्रदेश के तेलंगाना आंदोलन से व्‍यवस्‍था से बागी हुए। इसी के चलते 1962 में उन्हें जेल में रहना पड़ा, जहां उनकी मुलाकात कानू सान्‍याल से हुई।

वैसे नक्‍सलवाद के असली जनक कानू ही माने जाते हैं। कानू का जन्‍म दार्जिंलिग में हुआ था। वे पश्‍चिम बंगाल के सीएम विधानचंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में जेल में गए थे। कानू और चारू मुजुमदार जब बाहर आए तो उन्‍होंने सरकार और व्‍यवस्‍था के खिलाफ सशस्‍त्र विद्रोह का रास्‍ता चुना। कानू ने 1967 में नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की। आगे चलकर कानू और चारू के बीच वैचारिक मतभेद बढ़ गए और दोनों ने अपनी अलग राहें, अलग पार्टियों के साथ बना लीं।

बहरहाल, चारू मुजुमदार की मृत्‍यु 1972 में हुई, जबकि कानू सान्‍याल ने 23 मार्च 2010 को फांसी लगा ली। हालांकि दोनों की मृत्‍यु के बाद नक्‍सलवादी आंदोलन भटक गया। लेकिन यह भारत के कई राज्‍यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड और बिहार तक फैलता गया, पर जिन वंचितों, दमितों, शोषितों के अधिकारों की लड़ाई के लिए शुरू हुआ, ना तो उनके कुछ हाथ आया, न नक्‍सलवादियों के। हिंसा की बुनियाद पर रखी इस आंदोलन की भटकाव ही परिणिति थी।

युवाओं के बीच आजादी के बाद का सबसे लोकप्रिय आंदोलन 

1970 के बाद भयंकर सरकारी दमन और 1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में मौत के बाद इस आंदोलन में बिखराव आ गया। लेकिन इस आंदोलन ने उस वक्त किसानों के साथ-साथ युवाओं को बड़ी तेजी से अपनी और खींचा था। उस वक्त के साहित्यकारों के बीच नक्सल आंदोलन प्रमुख विषय था। कई कविताएं, कहानियां और उपन्यास इस आंदोलन पर लिखे गए।

महाश्वेता देवी का प्रसिद्ध उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ नक्सलवादी आंदोलन पर ही लिखा गया है। गोविंद निहलानी ने इस उपन्यास पर इसी नाम की फिल्म भी बनाई है।

कौन हैं आज के माओवादी?

आज भी सशस्त्र आंदोलन को बदलाव का एकमात्र जरिया मानने वाली पार्टियों का जैसे पीपुल्स वार ग्रुप, पार्टी यूनिटी और एमसीसी जैसे दलों का अलग-अलग समय में विलय हुआ। इसके विलय से ही 2004 में सीपीआई (माओवादी) के गठन की घोषणा हुई। आज की माओवादी और नक्सली कार्रवाइयों का इसी पार्टी से संबंध है। आदिवासी इलाकों में इसी पार्टी के प्रभाव क्षेत्र को ‘रेड कॉरिडोर’ के नाम से जाना जाता है।

दूसरी तरफ सीपीआई (एमएल) का एक गुट ऐसा भी था, जिसने भूमिगत या सशस्त्र आंदोलन के साथ-साथ धरना-प्रदर्शन, घेराव, रैली जैसे जनआंदोलनों को भी अपनाया। इस ग्रुप को सीपीआई (एमएल)-लिबरेशन के नाम से जाना जाता है। इस ग्रुप का मुख्य प्रभाव बिहार में है।

लिबरेशन ने अप्रैल, 1982 में आईपीएफ की स्थापना की और आईपीएफ ने चुनावों में भी भागीदारी की। लिबरेशन आजकल चुनावों में भागीदारी करती है और फिलहाल बिहार विधानसभा में इसके तीन विधायक और झारखंड विधानसभा में एक विधायक हैं। आइसा नामक छात्र संगठन लिबरेशन से ही संबद्ध है।

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