सिनेमा को दोष क्यूँ ?

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आज हम एक तेज गति में तकनीक के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। तकनीक द्वारा मनुष्य को भेंट किये गए उपहारों में से सिनेमा एक अमूल्य उपहार है। इसने समाज को मनोरंजन के साथ ज्ञान का अथाह सागर भी दिया है जिसमें मानव के विकास और विनाश दोनों की झलक देखने को मिलती है। कभी अमुक फिल्म की भली सीख दर्शक हृदय में धारण कर लेता है तो कभी अपराध को बढ़ावा देती कोई फिल्म दर्शकों को प्रभावित कर जाती है। समाज में बढ़ती हिंसा, यौन हमलों और जालसाज़ी की सीख देने के लिए अक्सर ही सिनेमा को दोषी बनाया जाता है एवं यह तर्क पूरी तरह से अनुचित भी नहीं है, जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते है ठीक उसी प्रकार सिनेमा के भी दोतरफ़ा परिणाम मिलते है।

वर्तमान युग का भारतीय सिनेमा अंतरराष्टीय सिनेमा जगत के आकाश का एक चमकता हुआ सितारा बन चुका है। सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभावों की एक लंबी फ़ेहरिस्त सहित आज का सिनेमा समाज को सुधारने, जागरूक करने एवं मनोरंजन करने के सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधनों में गिना जाता है। आज का सिनेमा हम सबके जीवन का अटूट हिस्सा बनने के अतिरिक्त व्यापारिक दृष्टि से भी अत्यंत लाभकारी बन गया है। आधुनिक युग में सिनेमा के माध्यम से दर्शकों को सामाजिक, राजनीतिक और राष्टीय मामलों के छुपे हुए पक्ष भी ज्ञात हो जाते है जो शायद ही किसी किताब या कहानी के रूप में पढ़ें जाते हो अथवा समाज के इतिहास को जग-जाहिर करते हो। इसके आलावा आम आदमी की जीवन शैली, शिक्षा, साहित्य, व्यक्तिगत विकास इत्यादि के प्रचार-प्रसार में भी सिनेमा कारगर भूमिका निभाता है। आज भारत आधुनिक तकनीक से लबरेज फिल्में बनाने में विश्व की अग्रणी पंक्ति के देशों के मुकाबले में खड़ा है। बाहुबली जैसी सफल और लोकप्रिय फिल्म के साथ आज भारत का हिंदी सिनेमा ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय सिनेमा भी उत्कृष्ट फिल्मों देकर अंतर्राष्टीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है। भारतीय फिल्में पड़ोसी देशों में सफल व्यवसाय कर रही हैं एवं गुणवत्ता एवं भव्यता की दृष्टि से भारतीय फिल्मों की सराहना पूरी दुनिया में की जा रही है।

फिल्में समाज का दर्पण-
आज का भारतीय सिनेमा अपने दोनों पक्षों के अनुरूप समाज को प्रभावित करता है, आमतौर पर सामाजिक पतन के लिए अंतिम रूप से हम सिनेमा को ही ज़िम्मेदार ठहराते है। जबकि हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण है जहाँ फिल्मों के अस्तित्व में आने के कई वर्षों पहले भी समाज में अनेकों कुरीतियों ने अपने पांव पसारे हुए थे। हम सभी बचपन से सुनते आए है कि ‘फ़िल्में समाज का दर्पण होती है’ हमारे आसपास जो कुछ भी घटित होता है वही थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ सिनेमा में अभिव्यक्त होता है। अगर वर्तमान फिल्मों की विषय वस्तु पर गहराई से विचार किया जाए तो यह कथन आज के सिनेमा पर कई अर्थों में लागू नही होता क्यूंकि आमतौर पर अब ऐसी फिल्में बनाई जा रही है जो समाज का दर्पण नहीं है बल्कि समाज को एक नया दर्पण दिखा रहीं हैं।

बीते कुछ वर्षों में जब हिंदी सिनेमा फूहड़, हास्य और दिवर्थी संवादों से भरी हुई फिल्मों में रंगने लगा था और प्रतिष्ठित निर्माता – निर्देशक भी उसी होड़ का हिस्सा बनने के लिए कूद पड़े थे। उस दौर में वर्ष 2001 में आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लगान’ पर्दे पर आयी थी जो बेहद परिपक्व कलाकारों एवं आमिर खान के मजबूत अभिनय से सजी थी। इस फिल्म ने भारतीय इतिहास के एक स्वर्ण पन्ने को खोला था और हम सबको बड़ी ही सहजता से उसे समझने का मौका दिया था। दर्शकों के साथ फिल्म विश्लेषकों ने भी इस फिल्म को उतना ही सराहा था। वर्ष 2003 में रिलीज़ हुई एक और फिल्म ‘बाग़बान’ जिसे रवि चोपड़ा ने निर्देशित किया था और मुख्य किरदार में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन थे।

माँ बाप के महत्त्व को दर्शाती इस सफल फिल्म ने साबित किया था की एक साफ सुथरी और उद्देश्य पूर्ण फिल्म बिना किसी मिर्च-मसाले के केवल अपने संजीदा अभिनय और दमदार कहानी के साथ न सिर्फ सुपरहिट हो सकती है बल्कि दर्शकों के दिल में एक ख़ास जगह भी बना सकती है। अनगिनत बार यह फिल्म देखी गई, इसने सामजिक और पारिवारिक मुद्दों की ओर हिंदी सिनेमा का ध्यान खींचा। ऐसा तब संभव हुआ जब सिनेमा जगत के नामी लोग भी मान बैठे थे की सार्थक फ़िल्में दर्शकों को सिनेमा घर तक नहीं ला सकती और मात्र अश्लील, हास्य या मारधाड़ परोसने वाला कमर्शियल सिनेमा ही किसी फिल्म को हिट बनाने का फार्मूला है। ऐसी कई फिल्मों ने भारतीय सिनेमा का खोया हुआ सम्मान वापस लौटाया है। इसके बाद कई सामाजिक मुद्दों से जुड़ी एवं महिला प्रधान फ़िल्में आती रहीं है और हिंदी सिनेमा ने अपना गिरता हुआ मूल्य पुनः प्राप्त किया है। निश्चित ही आज के समय के साथ फिल्मों का स्वरुप पूरी तरह से बदल चुका है। मगर भारतीय समाज और सिनेमा में निरंतर परिवर्तन होते हुए भी मूल और नैतिक सिनेमा आज भी उतना ही लोकप्रिय और सफल है। जैसे-जैसे सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन आता जा रहा जा रहा है फिल्मों का स्वरुप भी ठीक उसी अनुपात में परिवर्तित होता जा रहा है।

समाज की बुराईयों का जिम्मेदार सिनेमा क्यों?
फ़िल्मों को दोष देते हुए समाज को दूषित करने का आरोप प्रत्यारोपण तो हम अक्सर पढ़ते-सुनते है किन्तु न सिर्फ पुरानी अपितु नई फिल्मों की भी ऐसी एक लंबी लिस्ट गिनाई जा सकती है जिनके माध्यम से जाने कितनी ही सामाजिक बुराईयों का विश्लेषण किया गया और अंत में उनका हल भी सुझाया गया। एक ऐसी ही प्रभावशाली, दमदार और बेहतरीन फिल्म ‘पिंक’ वर्ष 2016 सितंबर में रिलीज हुई थी। इस फिल्म ने महिलाओं के चरित्र के चित्रण का एक ऐसा उदाहरण पेश किया था जिसने न केवल पुरुषवादी सोच को आईना दिखाया था बल्कि हमारे क़ानूनी सिस्टम में महिलाओं के लिए बनायें गए नियमों से भी हमें सरोकार कराया था। इस फिल्म ने महिला सशक्तिकरण जैसे अत्यंत संवेदनशील सामाजिक मुद्दे को उठाया था।  समाज तक मजबूत सन्देश पहुँचाने वाली इस फिल्म की झोली में राष्टीय अवॉर्ड, फिल्मफेयर अवॉर्ड, आईफा अवॉर्ड के साथ अन्य उपलब्धियां एवं पुरस्कार भी आये थे। मेरे कहने का आशय यहाँ मात्र इतना है कि वर्तमान समय में सिनेमा के क्षीण होते स्तर के बावजूद एक बेहद सार्थक और उत्तम दर्जे का सिनेमा भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है जो समाज को निरंतर नैतिकता का पाठ पढ़ा रहा है एवं भारत के स्वर्ण इतिहास के दर्शन भी करा रहा है।

किसी भी अन्य क्षेत्र की तरह ही फिल्म जगत में भी समाज और दर्शकों की पैनी होती सोच और पसंद के अनुरूप बदलाव किए जाते रहे हैं और पहले प्रयुक्त विषयों में नयापन भी जोड़ा जाता रहा है जैसे बाग़बान में एक मजबूत पिता जो अपनों नालायक बच्चों को अंत तक माफ़ नहीं करता जबकि इसी विषय पर बन चुकी पुरानी फिल्मों का क्लाइमेक्स इसके विपरीत होता था। शायद उस दौर में पिता का इतना कठोर रूप दर्शक पचा नहीं पाते।

बदलते समय में नए प्रयोग-
आज जो सिनेमा हमारे सामने खड़ा है वो प्रतिभाशाली एवं समर्पित फिल्मकार, कलाकार, संगीत और गायन से समृद्ध है। भारतीय फ़िल्में न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी परचम लहरा रही है अब बॉलीवुड मुंबई और भारत से होकर अंतर्राष्टीय मंच तक जा पहुंचा है। अब थियेटर जगत के तमाम प्रतिभा शाली कलाकार फिल्मों में जगह बना रहे है और साधारण शक्ल सूरत वाले मगर बेहतरीन अभिनय कौशल का हुनर रखने वाले सितारे अब फिल्म जगत की ऊंचाइयां नाप रहे है। आजकल फिल्मों का निर्माण मात्र मनोरंजन के साधन के रूप में नही किया जाता बल्कि यह व्यापार का एक बहुत विशाल बाज़ार बन गई है। सौ करोड़ी क्लब में शामिल होना आज किसी फिल्म के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं रह गई है। मल्टीप्लेक्स के महंगे टिकट और बड़े परदे पर फिल्म देखने का आकर्षण आज भी बरक़रार है और यही कारण है की महंगी फिल्मों का बनाया जाना और अपनी लागत निकाल कर उसे हिट का तमगा दिए जाने की होड़ सी लगी है। दर्शकों के लिए अब फ़िल्में सहज ही उपलब्ध हो जाती है। इंटरनेट ने यू-ट्यूब पर सिनेमा देखना आसान कर दिया है और स्मार्ट फोन के आविष्कार के साथ नई फिल्म के शो घर बैठे-बैठे ही देखे जा सकते है। लेकिन फिर भी फिल्मों के प्रति जुनून का भाव किसी भी प्रकार कम नहीं हुआ है।

एवं आज के सिनेमा के स्तर को निम्न कहा जाना या सामाजिक दृष्टि से फिल्मों की निंदा करना उचित नहीं है। हाल ही के वर्षों में सिनेमा जगत ने हमें अलग-अलग कई अच्छी कही जा सकने वाली फिल्मों का जायका दिया है जिनमें कंगना रनौत अभिनीत झाँसी की रानी, सुपर सिक्सटी, दंगल, पीके, उरी, पैड मैन, हाईवे और टॉयलेट-एक प्रेम कथा जैसी उम्दा और शैली से बिलकुल हटके फिल्मों का निर्माण किया गया। इन फिल्मों में बदलते समय के साथ नए-नए प्रयोग किये गए और फिल्मों की विषय वस्तु को पूरी तरह से महत्व दिया गया। सिनेमा की शुरूआत से लेकर वर्तमान युग के आधुनिक एवं यथार्थवादी सिनेमा में कई तरह के अच्छे-बुरे बदलाव आते रहें हैं एवं मैं समझती हूँ कि इस प्रकार के आवश्यक परिवर्तन हमारे समाज को एक उचित दिशा भी देते रहे है।

फिल्मों की सफलता के पैमानों में बदलाव-
यदि वर्तमान सिनेमा समाज के गिरते स्तर का अपराधी है तो हम स्वंय भी उतने ही अपराधी हुए क्यूंकि आमतौर पर हम फिल्मों से अनुचित सीख ही लेते हैं।  बहरहाल, भविष्य में भी सिनेमा निश्चित ही परिवर्तित होता रहेगा एवं हमारे समाज को प्रभावित करता रहेगा। हालांकि प्रखर स्वरुप के समांतर सिनेमा का एक स्याह चेहरा भी है जिसे नकारा नहीं जा सकता। कास्टिंग काउच जैसा घटिया और अनैतिक प्रचलन कई वर्षों से कला को ख़रीद-बेच रहा है, समूचा बॉलीवुड इससे ग्रस्त है। इसके अलावा हमारे भारत में सिनेमा विशाल पैमाने पर लोकप्रिय होने के कारण बड़े पूँजीपतियों व अनेक असामाजिक तत्वों की सक्रियता के लिए जिम्मेदार भी माना जाता रहा है जिनका मूल उद्‌देश्य फिल्म निर्माण में धन लगाना और गैरक़ानूनन तरीके से अपार धन अर्जित करना है। मनुष्य के इस स्वार्थी दृष्टिकोण ने तो सदैव ही राष्ट्रहितों की अनदेखी कर अपने निजी हित साधे है। वर्तमान समय में जहां हर हफ़्ते एक फिल्म रिलीज़ की जाती है वहां फिल्मों की गुणवत्ता गिरना स्वाभाविक है। सौ फ़ीसदी बेहतर फिल्मों की अपेक्षा किया जाना भी तर्कसंगत नहीं है। आज हमारा भारतीय सिनेमा समय और दर्शकों की बदलती पसंद एवं मांग के अनुसार साल दर साल परिवर्तित हो रहा है और यही कारण है कि अमेरिका, जापान, रूस और फ्रांस जैसे देशों में  भारत का सिनेमा अपना नाम दर्ज़ करा रहा है। हालाँकि आज सिनेमा में संदेश से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यवसाय हो गया है। 21वीं सदी में मल्टीप्लेक्स के आने की वजह से सिनेमा बनाने और देखने दोनों में अंतर आ गया है। शहरों में मल्टीप्लेक्स ने दर्शकों को सुविधा और सुरक्षा दोनों प्रदान की है। नतीजतन घरों में बैठे दर्शक थिएटरों में आए इससे फिल्मों की आमदनी बढ़ी और निवेश में भी बढ़ोत्तरी हुई। साथ ही कुछ कारपोरेट घरानों ने फिल्म प्रोडक्शन में कदम रखा जिसके कारण फिल्म निर्माण का कारपोरेटाइजेशन हो गया। व्यवसाय की दृष्टि से आज निर्माता, निर्देशक और वितरक का ध्यान कमाई पर रहने लगा है। आज फिल्में 100 करोड़ रुपये का व्यवसाय करने लगी हैं और फिल्मों के हिट या सफल होने के मायने बदल गए हैं। आज इस बात का मायने खत्म हो गया है कि दर्शकों को फिल्में कितनी पसंद आईं, महत्वपूर्ण यह हो गया है कि किस फिल्म ने कितने करोड़ की कमाई की। यह माना जाने लगा है कि फिल्म से जितनी कमाई होगी, वह फिल्म उतनी अच्छी होगी। आजकल निर्मातागण धन प्राप्ति की लालसा में अभद्र व अश्लील फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं जिसका दुष्प्रभाव बच्चों व युवा पीढ़ी पर स्पष्ट देखा जा सकता है। आज के नवयुवकों के चारित्रिक पतन के लिए सिनेमा भी उत्तरदायी है, परन्तु सिनेमा को सामाजिक पतन के लिए मुख्य ख़लनायक कहना भी मुझे उचित नहीं लगता। जब सामाजिक पतन के मूल कारणों की चर्चा की जाती है। हम सिनेमा को दोषी ठहराते है जबकि नैतिक या अनैतिक आचरण की मूल जड़ किसी व्यक्ति की परवरिश एवं उसकी सोच पर निर्भर है जो उसके स्वयं के तथा आसपास के वातावरण से विकसित होता है। वास्तव में सिनेमा की बुनियाद में नहीं बल्कि मनुष्य की नकारात्मक एवं स्वार्थी सोच में ही समाज के पतन का हेतु छुपा है। सिनेमा समाज का दर्पण है या समाज सिनेमा का दर्पण है, यह एक अंतहीन बहस का मुद्दा है परन्तु सिनेमा एवं समाज एक दूसरे के पूरक अवश्य है।

रिया गुप्ता