राजपूताना इतिहास: बिना सिर लड़ण वाळा वीर तोगाजी राठौड़

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राजस्थान का इतिहास वीर-गाथाओं के लिए जाना जाता है। पूरे देशभर का इतिहास उठाकर देख ले तो भी आपको मारवाड के वीरपुत्रों जैसी गाथाएं कहीं पढ़ने या सुनने को नहीं मिलेगी। राजस्थान के इतिहास में खास ये ही है कि यहां के आम राजपूत से लेकर ऊंचे घरानों के पुत्रों ने भी अपनी धरती के लिए सर कटा दिया। इसके बावजूद ये महान वीर हमारे इतिहास की मोटी-मोटी किताबों में कही दर्ज नहीं है। इतिहास के पन्नों में राजस्थान के कुछ ही वीरपुत्रों के बारें में लिखा गया है लेकिन इस 18 साल के वीर तोगा राठौर को शायद ही हमारा इतिहास जानता हो…. 

वीर तोगा जी ने शाहजहां को महज यह यकीन दिलाने के लिए अपना सिर कटवा दिया कि राजपूत अपनी आन-बान के लिए बिना सिर के वीरता पूर्वक युद्ध लड़ सकता है और उसकी पत्नी सती हो जाती है। आज का राजपूत या और कोई भले ही इसे महज कपोल-कल्पना समझे, लेकिन राजपूतों का यही इतिहास रहा है कि वे सच्चाई के लिए मृत्यु को वरण करना ही अपना धर्म समझते थे।

साल 1656 के आसपास का समय था। दिल्ली पर बादशाह शाहजहां व जोधपुर पर राजा गजसिंह प्रथम का शासन था। एक दिन शाहजहां का दरबार लगा हुआ था। सभी अमीर उमराव और खान अपनी अपनी जगह पर विराजित थे| उसी समय शाहजहां ये कहा कि अपने दरबार में खान 60 व उमराव 62 क्यों है? उन्होंने दरबारियों से कहा कि इसका जवाब तत्काल चाहिए। सभा में सन्नाटा पसर गया। सभी एक दूसरे को ताकने लगे। सब ने अपना जवाब दिया, लेकिन बादशाह संतुष्ट नहीं हुआ । आखिरकार दक्षिण का सुबेदार मीरखां खड़ा हुआ और उसने कहा कि खानों से दो बातों में उमराव आगे है इस कारण दरबार में उनकी संख्या अधिक है। पहला, सिर कटने के बावजूद युद्ध करना और दूसरा युद्धभूमि में पति के वीरगति को प्राप्त होने पर पत्नी का सति होना।

शाहजहां यह जवाब सुनने के बाद कुछ समय के लिए मौन रहा। अगले ही पल उसने कहा कि ये दोनों नजारे वह अपनी आंखों से देखना चाहते है। इसके लिए उसने छह माह का समय निर्धारित किया। साथ ही उसने यह भी आदेश दिया कि दोनों बातें छह माह के भीतर साबित नहीं हुई तो मीरखां का कत्ल करवा दिया जाएगा और उमराव की संख्या कम कर दी जाएगी। इस समय दरबार में मौजूद जोधपुर के महाराजा गजसिंह जी को यह बात अखर गई। उन्होंने मीरखां से इस काम के लिए मदद करने का आश्वासन दिया।

मीरखां चार महीने तक रजवाड़ों में घूमे, लेकिन ऐसा वीर सामने नहीं आया जो बिना किसी युद्ध महज शाहजहां के सामने सिर कटने के बाद भी लड़े और उसकी पत्नी सति हो। आखिरकार मीरखां जोधपुर महाराजा गजसिंह जी से आ कर मिले। महाराजा ने तत्काल उमरावों की सभा बुलाई। महाराजा ने जब शाहजहां की बात बताई तो सभा में सन्नाटा छा गया। महाराजा की इस बात पर कोई आगे नहीं आया। इस पर महाराजा गजसिंह जी की आंखें लाल हो गई और भुजाएं फड़कजे लगी। उन्होंने गरजना के साथ कहा कि आज मेरे वीरों में कायरता आ गई है। उन्होंने कहा कि आप में से कोई तैयार नहीं है तो यह काम में स्वयं करूँगा।

महाराजा इससे आगे कुछ बोलते कि उससे पहले 18 साल का एक जवान उठकर खड़ा हुआ। उसने महाराजा को खम्माघणी करते हुए कहा कि हुकुम मेरे रहते आपकी बारी कैसे आएगी। बोलता-बोलता रुका तो महाराज ने इसका कारण पूछ लिया। उस जवान युवक ने कहा कि अन्नदाता हुकुम सिर कटने के बाद भी लड़ तो लूँगा, लेकिन पीछे सति होने वाली कोई नहीं है अर्थात उसकी शादी नहीं हो रखी है। यह वीरता दिखाने वाला था तोगा राठौड़। महाराजा इस विचार में डूब गए कि लड़ने वाला तो तैयार हो गया, लेकिन सति होने की परीक्षा कौन दे। महाराजा ने सभा में दूसरा बेड़ा घुमाया कि कोई राजपूत इस युवक से अपनी बेटी का विवाह सति होने के लिए करेगा। तभी एक भाटी सरदार इसके लिए राजी हो गया।

महाराजा ने अच्छा मुहूर्त दिखवा कर तोगा राठौड़ का विवाह करवाया। विवाह के बाद तोगाजी ने अपनी पत्नी के डेरे में जाने से इनकार कर दिया। वे बोले कि उनसे तो स्वर्ग में ही मिलाप करूँगा। उधर, मीरखां भी इस वीर जोड़े की वीरता के दिवाने हो गये। उन्होंने तोगा राठौड़ का वंश बढ़ाने की सोच कर शाहजहां से छह माह की मोहलत बढ़वाने का विचार किया। ज्योंहि यह बात नव दुल्हन को पता चली तो उसने अपने पति तोगोजी की सूचना भिजवाई कि जिस उद्देश्य को लेकर दोनों का विवाह हुआ है वह पूरा किये बिना वे ढंग से श्वास भी नहीं ले पाएंगे। इस कारण शीघ्र ही शाहजहाँ के सामने जाने की तैयारी की जाए। महाराजा गजसिंह व मीरखां ने शाहजहाँ को सूचना भिजवा दी।

समाचार मिलते ही शाहजहां अपने दो बहादुर सैनिकों को तोणा जी से लड़ने के लिए तैयार किया। शाहजहां ने अपने दोनों सैनिकों को सिखाया कि तोगा व उसके साथियों की पहले दिन भोज दिया जायेगा। जब वे लोग भोजन करने बैठेंगे उस वक्त तोगा का सिर काट देना ताकि वह खड़ा ही नहीं हो सके। उधर, तोगाजी राठौड़ आगरा पहुंच गए। बादशाह ने उन्हें दावत का न्योता भिजवाया। तोगाजी अपने साथियों के साथ किले पहुँच गए। वहां उनका सम्मान किया गया। मान-मनुहारें हुई। बादशाह की रणनीति के तहत एक सैनिक तोगाजी राठौड़ के ईद-गीर्द चक्कर लगाने लगा। तोगोजी को धोखा होने का संदेह हुआ। उन्होंने अपने पास बैठे एक राजपूत सरदार से कहा कि उन्हें कुछ गड़बड़ लग रही है इस कारण उनके आसपास घूम रहे व्यक्ति को आप संभाल लेना ओर उनका भी सिर काट देना।

उसके बाद वह अपना काम कर देगा। दूसरी तरफ, तोगाजी की पत्नी भी सती होने के लिए सजधज कर तैयार हो गई । इतने में दरीखाने से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी कि तोगाजी ने एक व्यक्ति को मार दिया ओर पास में खड़े किसी व्यक्ति ने तोगाजी का सिर धड़ से अलग कर दिया। तोगाजी बिना सिर तलवार लेकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। तोगाजी के इस करतब पर ढोल-नणाड़े बजने लगे। चारणों ने वीर रस के दूहे शुरू किए। ढोली व ढाढ़ी सोरठिया दूहा बोलने लगे। तोगाजी की तलवार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बादशाह के दरीखाने में हाहाकार मच गया। बादशाह दौड़ते हुए रणक्षेत्र में पहुंचे।

दरबार में खड़े राजपूत सरदारों ने तोगाजी ओर भटियाणी जी की जयकारों से आसमाज गूंजा दिया तोगाजी की वरीता देखकर बादशाह महाराजा गजसिंह जी के पास माफीनामा भिजवाया और इस वीर को रोकने की तरकीब पूछी। कहते हैं कि ब्राह्मण से तोगाजी के शरीर पर गुली का छिटा फिकवाया तब जाकर तोगोजी की तलवार शांत हुई और धड़ नीचे गिरा। उधर, भटियाणी सोलह श्रृंगार कर तैयार बैठी थी। जमना जदी के किनारे चंदन कि चिता चुनवाई गई। तोगाजी का धड़ व सिर गोदी में लेकर भटियाणीजी राम का नाम लेते हुए चिता में प्रवेश कर गई।

तो अब आप ही बताएं इस 18 साल के वीर पुत्र की गाथा इतिहास के कौनसे पन्ने पर दर्ज है। राजस्थान की मिट्टी इस वीर के बलिदान को कभी नहीं भूल पाएंगी।