पिघलेंते ग्लेशियर और बिगड़ती सेहत

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हम सभी जानते हैं कि, पूरे ब्रह्मांड में जीवन वाला एकमात्र ज्ञात ग्रह ‘पृथ्वी’ है। जब आज के दौर में विज्ञान पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन की तलाश कर रहा हैं तब यहाँ पृथ्वी खुद ही अपने जीवन के अस्तित्व को बचाने में लगी हैं। आज हालात ऐसे हैं कि धरती कांप रही हैं। भूकंप और सुनामी की तबाही हैं। दुनिया के कई हिस्सों में आज असमय बर्फबारी और सूखे जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं। वैश्विक पर्यावरण सुरक्षा जैसे विषय पर अब चर्चा करने का समय नहीं रहा बल्कि कुछ कर दिखाने का समय आ गया है। ‘हिंदूकुश हिमालय’ पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक अगर दुनिया का तापमान मौजूदा रफ्तार से बढ़ता रहा तो सन 2100 तक 46 प्राकृतिक ग्लेशियरों में से 21 हैरिटेज ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। रिसर्च के मुताबिक, अगर उत्सर्जन कम भी होता है तो इनमें से आठ को बचाना मुश्किल होगा।  इससे पीने के पानी का संकट पैदा होगा, समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और मौसम चक्र में भी परिवर्तन हो सकता है। इस आपदा की चपेट में आकर हिमालय का खुम्भू ग्लेशियर भी खत्म हो सकता है। शोध में तीन बड़े हैरिटेज ग्लेशियर पर खतरे के सकेंत दिए हैं। जिनमें स्विट्जरलैंड के मशहूर ग्रोसर एल्चेस्टर और ग्रीनलैंड के जैकबशावन आईब्रेस ग्लेशियर का भी नाम है। रिसर्च में आगे कहा गया , “इन ग्लेशियर को खोना किसी त्रासदी से कम नहीं होगा। अब दुनियाभर की सरकारों को चेत जाना चाहिए क्योंकि आने वाली पीढ़ियों के लिए इन ग्लेशियरों का रहना बेहद जरूरी है। इसका सीधा असर पेयजल के संसाधनों पर पड़ेगा। समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी और मौसम चक्र पर भी इसका असर साफतौर पर देखा जाएगा।

हर साल 2 लाख लोगों की मौत
एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 6000 लाख लोग पानी की भारी कमी का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक साफ पानी न मिलने के कारण हर साल 2,00,000 लोग मारे जाते हैं। यह भी अनुमान है कि 2030 तक पीने के पानी की जरूरत उसकी सप्लाई से दुगना हो जाएगी। तापमान बढऩे की वजह से पहाड़ी गावों की उपजाऊ भूमि बंजर होने लगी है। ऐसा कई सर्वों में निकलकर सामने आया। धरती के अस्तित्व से ही सम्पूर्ण जीव जगत का अस्तित्व हैं। धरती के अमूल्य उपहारों  की सुरक्षा के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत हैं। जल संरक्षण, वृक्षारोपण, पशु-पक्षियों की सुरक्षा के साथ-साथ अवैध खनन को रोकना होगा। हम सभी को जागरूक होकर धरती को प्रदूषण मुक्त बनाने तथा पर्यावरण संरक्षण में अपना अत्यधिक योगदान देने की जरूरत हैं।

जलवायु परिवर्तन से डायरिया और मलेरिया बढ़ेगा
मौसम में बदलाव या जलवायु परिवर्तन का यहां के रहने वालों की सेहत पर व्यापक असर पड़ रहा है। दूसरी बीमारियों के साथ-साथ कुपोषण बढ़ेगा, इससे गरीब लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। जानकारों का कहना है कि इससे बच्चों का शारीरिक विकास ठीक से नहीं हो पाएगा, अनुमान है कि 2050 तक इसमें 35 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। डायरिया इन्फेक्शन और मलेरिया जैसे संक्रामक रोग बढ़ने के आसार भी नजर आ रहे हैं। ये दोनों बीमारियां आज भी शिशु मृत्यु के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। भीषण गर्मी, गर्म हवाओं की वजह से होने वाली मौतों की तादाद बढ़ेगी।

अमेरिका के हवाई राज्य के सुप्रीम कोर्ट के जज और अमेरिका राज्य में पर्यावरण कानूनों के विशेषज्ञ जस्टिस माइकल डी विल्सन ने गंगा उदहारण देते हुए कहा कि जब कोई गंगा में जाता हैं तो वह न केवल भीगता हैं बल्कि प्रेरित भी होता हैं, इतने अधिक प्रदूषण के बाद भी लोगो ने गंगा से नाता नहीं तोड़ा हैं। लोग उसका सम्मान करते हैं। इसके पौराणिक नजरिये से इसका समाधान भी हो रहा हैं। भारतीय संस्कृति हैं जो अनंत में विश्वास करती है। यह प्रतिबद्धता 2000 सालों से भी अधिक समय से संस्कृति और मान्यताओं में नजर आती है।

अब देर न करते हुये समय आ गया है कि हम विश्व को जगाए और अपनी संस्कृति के माध्यम से ये बताए कि धरती को सुरक्षित रखने के लिये हमें उससे जुड़ना होगा ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पुत्र अपनी माता से जुड़ा होता हैं। आज भी दुनियां भारतीय संस्कृति का आदर और सम्मान तो करती ही हैं बस हमें आगे आके महा उपनिषद के उस पंक्ति का अर्थ ही तो बताना हैं जहाँ लिखा हुआ है- अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। अर्थात यह मेरा है और वह उसका है, इस तरह की सोच छोटे चित्त वाले लोगों की होती हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।बस यहीं भावना विश्व में स्थापित करके पारिस्थितिकी दर्शन  को पर्यावरण के मुख्य धारा से जोड़कर सर्जनात्मक विकास में उपयोग किया जा सकता है। प्रकृतिवादी शिक्षा का प्रसार अर्थात शिक्षा के माध्यम से पर्यावरण के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार हो ताकि इसे आचरण परक बनाया जा सके और लोगों तक धरती को बचाने के लिए अनुग्रहशीलता, विनम्रता व एकाग्रता का भाव उत्पन्न किया जा सके। अगर हम ऐसा करने में  तनिक भी सफल हुए तो धरती को हम बहुत हद तक अपनी आने वाले नस्लों के लिए सुरक्षित रखने में सफल हो पाएंगे।

अंकित सिंह (नई दिल्ली)

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