नारी “सशक्तिकरण” अथवा “शुद्धिकरण”!!

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“नारी,स्त्री,महिला” और भी अनेकों शब्द हैं विधाता की इस अमूल्य रचना के परिचय हेतु। हर शब्द का अपना भाव है, अपनी महिमा और अपना अर्थ किंतु जाने कितने शतकों से इन शब्दों के प्रत्यय के रूप में एक शब्द पैठ बना चुका है -“सशक्तिकरण”… इससे पहले कि मैं अपनी छोटी सी लेखनी से इस बड़े मुद्दे पर अपने विचार उदधृत करूँ मेरी सिर्फ एक शंका है, कि जो जीवात्मा/जाति आदिकाल से ही “आत्मशक्ति” का प्रतीक रही है उसके सशक्तिकरण का प्रश्न क्या सचमुच यथोचित है?

   चलिये अब बात उठी ही है तो प्रारंभ करती हूँ सृष्टिकर्ता के उस समय से जो उन्होंने “स्त्री” को बनाने हेतु लिये..

हमारे धार्मिक मिथकों के अनुसार ईश्वर को आदिशक्ति और परमात्मा ने गढ़ा और ईश्वर ने सृष्टि की रचना के समय स्त्री को समूर्त रूप देने में 6 दिन का समय लिया, जो शायद किसी अन्य रचना की तुलना में सबसे अधिक था और जब देवदूतों ने इसका कारण पूछा तो ईश ने बड़े ही सुंदर शब्दों से विवरण देते हुए सभी को समझाया कि “स्त्री” उनकी बनायी हुई सर्वोत्तम कृति है जो स्वयं सिद्धा, स्वयं कर्ता, स्वपालक होकर भी सदैव परहित को सर्वोपरि रखेगी । तो फ़िर ऐसी कृति के सशक्तिकरण की बात आख़िर क्यों ?

 थोड़ा और आगे बढ़ने पर जब सृष्टि संचालित हुई और सभी जीवात्मा अनेक संशयों को लेकर जीवन का प्रादुर्भाव कर रहे थे कि तभी यकायक एक दिन स्त्रियों ने ही जंगलों में मारे-मारे भटकते हुए पुरुषों को हाथ पकड़कर अपने स्तर का जीवन प्रदान किया तथा घर में बसाया एवं प्रथम सभ्यता की नींव डाली। तो फ़िर ऐसी सह साथी के सशक्तिकरण की बात आख़िर क्यों ?

 सभ्यता शुरू हुई और शनैः शनैः उदय हुआ हमारे भारतीय समाज के स्वर्ण युग का, “वैदिक काल” का, जिसमें उक्ति ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ का वैचारिक प्रसारण हुआ और संस्कृति की दृष्टि से स्त्रियों की प्रतिभा, तपस्या और विद्वता सभी विकासोन्मुख होने के साथ ही उनके आत्मविश्वास, शिक्षा, संपत्ति आदि के सम्बन्ध में सामाजिक समानता थी| यज्ञों में भी उसे सर्वाधिकार प्राप्त था। वैदिक युग में लड़कियों की गतिशीलता पर कोई रोक नहीं थी और न ही मेल मिलाप पर, स्त्रियां शास्त्रार्थ पारंगत थीं और सर्वथा स्वसक्षम। तो फ़िर ऐसी मैत्रेयी, गार्गी और अनुसूया नामक विदुषी की भूमि पर सशक्तिकरण की बात आख़िर क्यों ?

कालचक्र अपनी गति से चलता रहा और कई कल्प,युग बदलते रहे। और साथ ही साथ स्त्री के अधिकार छीनकर उसे कर्तव्यों के चोले पहनाये जाने लगे और साथ ही कई कुरीतियों के महिमामंडन के साथ उसे कई कुरीतियों के आभूषण से सुसज्जित भी कर दिया गया। पुरातन व्यवस्था हो या मध्यकालीन समाज की अनैतिक कुरीतियां अथवा आधुनिक युग की रूढ़िवादिता। हमेशा ही सारे बंधन, सारी नियमावली, सारी कुंठित मानसिकताओं का प्रहार सिर्फ और सिर्फ स्त्री पर ही हुआ। और अगर वाकई इतनी तुच्छ है “स्त्री” नामक यह ईश्वरीय रचना तो भी श्रीमान इसके सशक्तिकरण की बात आख़िर क्यों ?

April 2018 magzine-11

जिस दैव भूमि में हम स्वयं भूमि को माता का दर्जा देते हैं, कष्ट निवारण हेतु माँ ग़ौरी की आराधना करते हैं, अर्थ प्राप्ति के लिए माँ लक्ष्मी की शरण में जाते हैं, विद्या प्राप्ति हेतु माँ सरस्वती से याचना करते हैं, अन्न भंडारण हेतु माँ अन्नपूर्णा को भोग लगाते हैं और भूमि पर अवतरण भी तो आख़िर स्त्री के माध्यम से ही ले पाते हैं और प्रत्येक वर्ष में दो बार 9 दिनों तक “सर्वशक्ति स्वरुप” अम्बे मात का स्तुति गान करते हैं तो भला ऐसे “शक्ति पुंज” के सशक्तिकरण की बात आख़िर क्यों ?

 स्त्री ने तो परहित के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में कोई कोताही नहीं की किन्तु उसके साथ कदमताल करने का साहस शायद वो “पर-आत्मा” नहीं कर पाई और झूठे अर्थों में उलझा कर दमनकारी नीति का उद्घोष प्रारंभ हो गया। “पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने| पुत्रश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातंत्रयमर्हति” उक्ति का प्रादुर्भाव करके धर्मसूत्र का सूत्रपात हुआ जिसमें स्त्री के लिये लगभग सब कुछ निषिद्ध था। किंतु आदरणीयों , इस धर्मसूत्र की स्थापना की किसने? जो स्वयं धर्म के प्रथम उद्देश्य “समानता और सर्वांगीण विकास” को हासिये पर रख चुके थे और शायद आज भी उन्हीं जैसे कइयों इस समकालीन समाज का नेतृत्व कर रहे हैं। और अगर यह भी इतना ही उचित है तो आख़िर एक अबला के सशक्तिकरण की बात आख़िर क्यों ?

 आख़िर क्यों???

एक बार अपने अंतस मन से यह प्रश्न ज़रूर कीजियेगा कि हमें “नारी सशक्तिकरण” की आवश्यकता है या फ़िर अपनी कुंठित विचारधारा को बदलने की । ज़रूरी है स्वयं को बदलना, अपने मन से नारी के प्रति हीनभाव और पौरुषत्व के निराधार उच्च होने के अवसाद से मुक्ति पाना।

………….क्योंकि महाशय,

आवाज़ तो खोखले बर्तन ही ज़्यादा करते हैं,हिंसा का पथ सदैव दानव बुद्धि चुनती है और निरर्थक ऊँचा स्वर भी असहायों का होता है। “समर्थ और सशक्त” व्यक्ति सदैव ही दया,शांति और उपकार को प्राथमिकता देता है।

और इसीलिये मेरी नज़र में आवश्यकता “सशक्तिकरण” की नहीं वरन विचारों के “शुद्धिकरण” की है और समय है सही “नीतिसूत्र” को ग्रहण करने का, अन्यथा स्त्रैण के “शक्ति स्वरुप” में तो नारी सृष्टि की जननी भी है और सकल पाप विनाशिनी भी।।।

– स्मृति तिवारी

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