क्या है राफेल विमान सौदा से जुड़ा विवाद, यहां जानें शुरू से अंत तक सबकुछ

राफेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये 3 हजार 800 किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है। बताया जाता है कि इस विमान के साथ स्पेयर पार्ट और मेटोर मिसाइल जैसे हथियार भी दिए जाते।

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नई दिल्ली: राफेल विमान सौदे को लेकर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने मोदी सरकार पर हल्ला बोल दिया है। देशभर में इस मुद्दे को खूब प्रेस कॉन्फ्रेस आदि चीजोंं से भुनाया जा रहा, आरोप लगाए जा रहे हैं। लेकिन कई लोग ऐसे भी जिन्हें ये विवादित मुद्दा समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर ये पूरा माजरा क्या है। तो आइए हम आपको विस्तार से समझाते हैं कि आखिर राफेल विमान सौदे पर पूरी विपक्ष मोदी सरकार पर क्यों टूट पड़ा है।

पूरा मामला जानने से पहले बता दें, ये मुद्दा अचानक इतना सुर्खियों में कैसे आ गया। राफेल डील को लेकर फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने बड़ा खुलासा किया है। उनका कहना है कि अनिल अंबानी के रिलायंस का नाम उन्हें भारत सरकार ने सुझाया था। उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। एक फ़्रेंच अखबार को दिए इंटरव्यू में ओलांद ने कहा कि भारत सरकार के नाम सुझाने के बाद ही दसॉल्ट एविएशन ने अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस से बात शुरू की।  ‘मीडियापार्ट फ्रांस’ नाम के अख़बार ने पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद से पूछा कि रिलायंस को किसने चुना और क्यों चुना तो फ्रांस्वा ओलांद ने कहा कि भारत की सरकार ने ही रिलायंस को प्रस्तावित किया था। इस खुलासे के बाद विपक्ष ने मोदी सरकार पर निशाने साधा है कि मोदी ने देश के साथ गद्दारी की है।

क्या है राफेल विमान सौदा-
यह सौदा आज का नहीं है बल्कि ये अटल बिहारी वाजपेयी के समय का है। वायु सेना को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए कम से कम 42 लडा़कू स्क्वाड्रंस की जरूरत थी, लेकिन उसकी वास्तविक क्षमता घटकर महज 34 स्क्वाड्रंस रह गई. इसलिए वायुसेना की मांग आने के बाद 126 लड़ाकू विमान खरीदने का सबसे पहले प्रस्ताव अटल बिहारी रखा लेकिन उस दौरान सरकार ये सौदा आगे नहीं बढ़ा सकी और कांग्रेस ने सत्ता में आकर इस प्रस्ताव को आगे लेकर गई। 126 एयरक्राफ्ट की खरीद पर साल 2007 में मंजूरी दे दी गई।

अटल बिहारी के टाइम क्यों अटका सौदा-
आपका सवाल होगा कि आखिर अटल जी के समय ये समझौता क्यों टला? दरअसल, दसाल्ट एविएशन भारत में बनने वाले 108 विमानों की गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी। दसाल्ट का कहना था कि भारत में विमानों के उत्पादन के लिए 3 करोड़ मानव घंटों की जरूरत होगी, लेकिन एचएएल ने इसके तीन गुना ज्यादा मानव घंटों की जरूरत बताई, जिसके कारण लागत कई गुना बढ़ जानी थी। इसलिए ये मामला टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के मामले में रोक गई थी।

पीएम मोदी की सरकार में क्या हुआ-
साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो उसने इस दिशा में फिर से प्रयास शुरू किया। पीएम की फ्रांस यात्रा के दौरान साल 2015 में भारत और फ्रांस के बीच इस विमान की खरीद को लेकर समझौता किया। इस समझौते में भारत ने जल्द से जल्द 36 राफेल विमान फ्लाइ-अवे यानी उड़ान के लिए तैयार विमान हासिल करने की बात कही। समझौते के अनुसार दोनों देश विमानों की आपूर्ति की शर्तों के लिए एक अंतर-सरकारी समझौता करने को सहमत हुए। समझौते के अनुसार विमानों की आपूर्ति भारतीय वायु सेना की जरूरतों के मुताबिक उसके द्वारा तय समय सीमा के भीतर होनी थी और विमान के साथ जुड़े तमाम सिस्टम और हथियारों की आपूर्ति भी वायुसेना द्वारा तय मानकों के अनुरूप होनी है। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद दोनों देशों के बीच 2016 में आईजीए हुआ। समझौते पर दस्तखत होने के करीब 18 महीने के भीतर विमानों की आपूर्ति शुरू करने की बात है यानी 18 महीने के बाद भारत में फ्रांस की तरफ से पहला राफेल लड़ाकू विमान दिया जाएगा। समझौते में कहा गया कि लंबे समय तक विमानों के रखरखाव की जिम्मेदारी फ्रांस की होगी।

क्या है राफेल की खायियत-
छह फाइटर जेट्स के बीच राफेल को इसलिए चुना गया क्योंकि राफेल की कीमत बाकी जेट्स की तुलना में काफी कम थी। इसके अलावा इसका रख-रखाव भी काफी सस्‍ता था। राफेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये 3 हजार 800 किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है। बताया जाता है कि इस विमान के साथ स्पेयर पार्ट और मेटोर मिसाइल जैसे हथियार भी दिए जाते। जो 100 किमी दूर स्थित दुश्मन के विमान को भी मार गिरा सकती है। अभी चीन या पाकिस्तान किसी के पास भी इतना उन्नत विमान सिस्टम नहीं है।

कहां अटका है मामला-
मोदी सरकार ने दावा किया कि यह सौदा उसने कांग्रेस से ज्यादा बेहतर कीमत में किया है और करीब 12,600 करोड़ रुपये बचाए हैं सरकार का दावा है कि पहले भी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की कोई बात नहीं थी, सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी की लाइसेंस देने की बात थी। लेकिन मौजूदा समझौते में ‘मेक इन इंडिया’ पहल किया गया है। फ्रांसीसी कंपनी भारत में मेक इन इंडिया को बढ़ावा देगी।

लेकिन मीडिया में आई तमाम खबरों में यह दावा किया गया कि यह पूरा सौदा 7.8 अरब रुपये यानी 58,000 करोड़ रुपये का हुआ है और इसकी 15 फीसदी लागत एडवांस में दी जा रही है। अब विपक्ष सवाल उठा रहा है कि अगर सरकार ने हजारों करोड़ रुपए बचा लिए हैं तो उसे आंकड़े सार्वजनिक करने में क्या दिक्कत है। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि यूपीए 126 विमानों के लिए 54,000 करोड़ रुपये दे रही थी, जबकि मोदी सरकार सिर्फ 36 विमानों के लिए 58,000 करोड़ दे रही है। कांग्रेस का आरोप है कि एक प्लेन की कीमत 1555 करोड़ रुपये हैं, जबकि कांग्रेस 428 करोड़ में रुपये में खरीद रही थी। कांग्रेस का कहना है कि बीजेपी सरकार के सौदे में ‘मेक इन इंडिया’ का कोई प्रावधान नहीं है।

रिलायंस का नाम क्यों उछला-
दरअसल, भारत में सैन्य विमान बनाने का काम HAL का है और कांग्रेस सरकार के दौरान राफेल को लेकर जो सौदेबाजी तय की गई थी वह इस कपंनी के द्वारा थी। लेकिन मोदी सरकार के सौदे में एचएएल कंपनी को बाहर कर इस काम को एक निजी कंपनी को सौंपने की बात कही गई थी और यह नाम अनिल अंबानी और रिलायंस का था। जिससे मोदी सरकार अब पल्ला झाड़ रही है। सरकार का कहना है कि उसने फ्रांसीसी कंपनी को भारत की किसी भी निजी कंपनी को चुनने की पूरी आजादी थी। कांग्रेस का आरोप है कि सौदे से HAL को 25000 करोड़ रुपये का घाटा होगा। जोकि ठीक नहीं। विपक्ष का सवाल है कि एक सरकारी कंपनी के साथ सौदा न करके निजी कंपनी को लाभ पहुंचाना कहा तक सही है। इसलिए इस पूरे मामले में रिलायंस का नाम उछला है।

पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति के खुलासे के बाद मोदी सरकार ने बयान जारी कर रहा है कि वह यह भाषण की जांच करने की कोशिश कर रही है कि आखिर पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने अपने इंटरव्यू में ऐसा क्यों कहा।

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