देश

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वो दौर बुरा था यारों जब, साँसे देश की गुलाम थी,
कुछ अपने भी भीरू थे, पगड़ी दुश्मन के नाम थी।
कैसे देख सकता था कोई भी, चाँद-सूरज और तारे,
दिन में भी जब देश भर में गहरी काली सी शाम थी।।
देश अपना रोज लुटता, कि कुछ अपनों के हाथ थे,
दुश्मन की क्या औकात, पर घर के भेदी ही साथ थे।
जब जान गए वो भेद, कि हाथ, हाथ यहाँ खाता है,
हर देशभक्त की पाक गिरेबाँ पर दुश्मन के हाथ थे।।
वो लूटते रहे, ये लुटाते रहे, कुछ औजारों के डर से,
फ़िर भी कुछ उड़ना चाहते थे, अपने कटे हुए पर से।
वो हराते रहे, हम हारते रहे, पर लड़ना नहीं छोड़ा,
अपनी जन्मभूमि बचाने, लड़ते रहे वो कटे सर से।।
वीरों ने अपने तन का, कतरा-कतरा लहू बहाया था,
कण-कण जब इस मिट्टी का, शोणित से नहाया था।
आजादी का स्वर्णिम सूरज यूँ ही तो नहीं चमका था,
कई भगत सिंह से वीरों ने, फाँसी को गले लगाया था।।
किसी ने सारी उम्र दी, तो किसी की इसमें जवानी थी,
कहीं भगत, सुखदेव, राजगुरु, कहीं झाँसी की रानी थी।
जब उगा सवेरा आजादी का, आँखें चमक रही थी सब,
इस नये सवेरे के पीछे, लाखों लोगों की कुर्बानी थी।।
जब आजादी का सूरज चमका, अपने प्यारे देश में,
हिन्दू-मुस्लिम एक हुए, एक हिन्दुस्तानी के भेष में।
जब धर्म सभी  एक हुए, सिर्फ़ मानवता के धर्म में,
तिरंगा फ़िर फहराया, रंग केसरिया, हरा और श्वेत में।।
– हंशु
राजस्थान

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